शायद याद हो तुम्हें लगभग दो साल पहले या यूं कहूं तो आने वाले साल में दो साल हो ही जाएंगे । मैं रात के आठ बजे ठिठुरते हुए सड़क से मेसेज करता था तुम्हें.. कभी बायां हाथ पॉकेट में तो कभी दायां, बड़ी ठण्ड थी उन दिनों… मैं ठीक से टाइप भी नहीं कर पा रहा था और तुम घर में बैठी मुझे लेट रिप्लाई दिया करती थी । मैं रात-रात भर ठण्ड में छत की सीढ़ियों पर बैठा तुमसे बातें करता था गिरती हुई ओस से जैसे दोस्ती हो गई थी मेरी । मैं रात भर जगा हूँ पहले तुम्हारे सोने के इंतज़ार में… जब तुम असाइनमेंट लिखा करती थी तब सुना है मैंने तुम्हारे पलटते हुए पन्ने की आवाज़ों को, उसपर चलती और घिसती हुई कलम को फिर तुम्हारे सो जाने के बाद तुम्हारी साँसे सुनी हैं मैंने, तुम्हारी करवटों को महसूस किया है, तुम्हारी चादर पर पड़ी सिलवटों को अपनी चादर पर डाल कर उससे तुम्हारे अक़्स बनाएं हैं मैंने… कभी फ़ोन नहीं काटा............
(तुम्हारे लिए)